१. जो जीवन ही परे हट जाए
एक सभा में मुलाकात के बाद
चैट पर बताती है एक लड़की
कि आत्महत्या करनेवाले
बहुत खीचते हैं उसे
यह क्या बात हुई ...
यूँ मेरे प्रिय लोगों की लिस्ट में भी
आत्महंता हैं कई
वान गॉग, मरीना, मायकोवस्की
और मायकोवस्की की आत्महत्या के पहले
आधीरात को लिखी कविता तो खीचती है
तारों भरी रात की मानिंद
पर आत्महनन मेरे वश का नहीं
सोचकर ही घबराता हूँ कि
रेल की पटरी पर मेरा कटा सर पड़ा होगा
और पास ही होगा नुचा चुंथा धड़
पर मेरे एक मित्र ने भी
हाल ही कर ली आत्महत्या
नींद की गोलियां खाकर
ठीक ही तो था
मेरी ही तरह हँसमुख
हाहाहा
क्या मैं अब भी हँसमुख हूँ
नींद की गोलियां तो मैंने भी खाई थीं
पता नहीं बच गई कैसे
क्या ... पागल हो क्या ...
बहुत परेशान थी सर
प्यार किया था फिर पता चला
उसके विवाह के अलावे संबंध हैं कई
उधर घरवाले
रोज एक लड़का ढूंढ ला रहे थे
तो ... क्या हुआ
जीवन का मुकाबला करना सीखो
पर मुकाबले से
जीवन ही परे हट जाये
तो ...तो सर।
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२. 'किसने बचाया आत्मा को'
किसने बचाया मेरी आत्मा को
आलुओं ने तो हरगिज नहीं
ना मोमबत्ती ने ना मिटटी के बर्तनों ने
ना पत्तों की आग ने
हां पुआल के बिस्तर और चांद ने बचाया थोड़ा
उससे ज्यादा अंधेरी रातों में जगमगाते तारों ने
आलोकित किया मेरा अंतर
और सोन नद के जल ने कि मैं मछली क्यों न हुआ
और उसकी दूर तक फैली रेत ने
कि काश मगरमच्छ होता
तो लोटता रहता रेत में
और लगा अाता डुबकी जब चाहे
ठंड ने बचाया मेरी आत्मा को
और घने कुहरे ने
जिसमें जब दोनों जने साथ चलते
तो दिशाओं को भी हमारी दिशा पता नहीं चलती
और गर्मी की छुटटी की चांदनी रातों ने
जब गांव में खुले आंगन में चौकी पर तारे गिनते
निद्रा की गोद में जाने के मुकाबले के
किसी स्वर्ग की कल्पना नहीं कर सका आज तक
और बारिश के चहबच्चों से भरे हरे मैदान में
फुटबॉल के पीछे की अनंत फिसलनों ने
जिसमें गिरने और उठने का बोध गायब रहता
राजूजी और सुधीर भाई जैसे
पटना, दिल्ली के पड़ोसियों ने बचाया मेरी आत्मा को
जो मेरी बक बक से चाहे बारहा आजिज हुए हों
पर कभी ईशारों में भी उसे जाहिर नहीं किया
बस एक आईना बने रहे
जिसके सामने की गयी हरकतों ने मुझे
लगातार आदमी बनाया।
(आलोक धन्वा की 'किसने बचाया मेरी आत्मा को' कविता से गुजरने के बाद )
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३. ओ मेरे अनंत
ओ मेरे अनंत
तुझमें बजता
सन्नाटा
परेशान कर रहा
पत्ते तक
नहीं खड़क रहे
सांस लेना
कठिन हो रहा।
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४. महानगर फेसबुक और शर्माता बच्चा
महानगर के मध्य
एक चौडी सडक है
जिसके आजू-बाजू
दो कम चौडी सडकें हैं
शेयर के आटो से उतरकर
इसी सडक से गुजरता हूं मैं
इस सडक पर पेड हैं कई
बडे बडे गमले भी रखवाए हैं सरकार ने
इससे जुडे फुटपाथ पर
जिस पर रंग-फूल पुते हैं
हालांकि इनमें लगाए गए फूल सूख गये हैं
पर इसके आस-पास
खेलते हैं फूल से बच्चे
इन पेडों पर दिखते हैं
कुछ गटठर बंधे हुए
जिनमें बंधा होता है
इस नहीं दिखते घर का साजो-सामान
कुछ घरेलू सामान इन गमलों में
और उसके आस-पास भी टिका होता है
सुबह-शाम इन गमलों के पास ही
माएं पकाती रहती हैं खाना
और बच्चे खेलते रहते हैं
गमलों-चूल्हों-सडकों के आर-पार
मैं गुजर रहा होता हूं
तो कभी-कभी भागता कोई बच्चा
पीछे चले आता है दौडता
तब सोचता हूं मैं
कितनी कलात्मक होगी
इस बच्चे की तस्वीर
फेसबुक के लिए
फिर खुद पर शर्मिंदा होता
बढ जाता हूं आगे
कुछ दूर पीछे दौड
लौट जाता है बच्चा भी
शर्माता सा।