मैं पालतू प्राणी बनकर
जीवन नहीं जीना चाहती ।
मेरी नसों- नाड़ियों में
जब तक रक्त का प्रवाह हो
मैं जीवित मुर्दे की भाँति
चारदीवारी के भीतर
नहीं कैद होना चाहती ।
मैं अपनी समस्त शक्ति को
निष्क्रिय सा उपकरण बना,
घूँघट से ढककर
व्यर्थ नहीं करना चाहती ।
मैं गाँव में पली बढ़ी हूँ
मेरा रक्त और भावनाएं ग्रामीण हैं।
मैं बाबा की पीठ पर लदकर
छोटी छोटी गलियों में घूमना चाहती हूँ ।
अपने हाथों में कोमलता नहीं चाहती मैं
वरन हाथों की कठोरता को परखना चाहती हूँ ।
बच्चों की भाँति मिट्टी में,
नंगे पाँव उछलना- कूदना चाहती हूँ ।
जब मेरी देह अपंग हो
और उसमें से बासी गन्ध आने लगे
तब मुझे छोड़ आना
उसी आँगन के बीचों-बीच
जहां से मैंने स्वप्न बुनना सीखा था ।