ग्रामीण रक्त

मैं पालतू प्राणी बनकर
जीवन नहीं जीना चाहती ।

मेरी नसों- नाड़ियों में 
जब तक रक्त का प्रवाह हो
मैं जीवित मुर्दे की भाँति
चारदीवारी के भीतर
नहीं कैद होना चाहती ।

मैं अपनी समस्त शक्ति को
निष्क्रिय सा उपकरण बना,
घूँघट से ढककर
व्यर्थ नहीं करना चाहती ।

मैं गाँव में पली बढ़ी हूँ
मेरा रक्त और भावनाएं ग्रामीण हैं।
मैं बाबा की पीठ पर लदकर
छोटी छोटी गलियों में घूमना चाहती हूँ ।

अपने हाथों में कोमलता नहीं चाहती मैं
वरन हाथों की कठोरता को परखना चाहती हूँ ।

बच्चों की भाँति मिट्टी में,
नंगे पाँव उछलना- कूदना चाहती हूँ ।

जब मेरी देह अपंग हो 
और उसमें से बासी गन्ध आने लगे
तब मुझे छोड़ आना
उसी आँगन के बीचों-बीच
जहां से मैंने स्वप्न बुनना सीखा था ।

- नेहा 'मृदुला'


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