१) साफ इन्कार
मैं जब उनके घर मे भरता था पाणी;
बाजार मे जाके ला देता था सब्जियां
चक्की पर से पिसके लाता था आटा
उनके जुतो को करता था आलिशान पाॅलीश
मार देता था उनके कपडे को चकाचौंध इस्त्री
देता था आये हुए मेहमानो को ट्रे से चाय
करता था खुले दिल से मेहमान नवाजी
आंगण मे खडी चार पैयो वाली ' डस्टर ' गाडी
पौछके करता था नऐं जैसी... एकदम साफसुथरी
ये सब करता था चुपचाप
हसते.. हसते.. आखिर तक
तब मै था उनके घर का
अत्याधिक महत्त्वपूर्ण सदस्य !
यहा तक घर का सहारा….
बहुत शरीफ आदमी….. इन्सानियत वाला
'मेरे ही भरोसे चलता है घर '
ऐसा दे दिया प्रशंसापत्र और प्रमाणपत्र
पर जब मैने सारे काम से
कर दिया साफ इन्कार
खुदकी सांस, खुदका आवाज
आझाद करके किया प्रतिकार….
तब उनके नजर में मै था
धोकेबाज... दगाबाज... कामचोर... बेईमान
आस्तीन का जहरीला साप…
केवल अहसान फरामोश…!
२) परछाई
एक बार खुदको
रख दिया बाजार मे फिर
दिखाईही नही देती
खुद की परछाई
दर्पण में
खरीदार रहते है
मदहोश अंदाज में
अंदर बाहर अंधेरें का साम्राज्य
है बाजार में
तब भी जलता है
एक अकेला दिया
अकेले कोनेसे बाजार में…!
३) गांधी - आंबेडकर का संघर्ष और कुछ अनुयायी
गांधी - आंबेडकरकें
वैचारिक संघर्ष के जले हुए अंगारो पे कुछ
लालचिवोंने केवल सेक ली
खुलेआम लजीज रोटियां
कभी वो खुद को दिखाने लगे
आंबेडकरवादी
और
कभी दिखाने लगे गांधीवादी…!
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मूल कवि - महेंद्र ताजणे
('ग्लोबल महासत्तेचा इस्कोट' से साभार)
अनुवादक : हेमंत सावले