शेषराव धांडे कि कुछ कविताएँ

 


१) नयी बस्तियों के लिए 


प्रिये 
मेरे पूर्वजों ने लगाया हुआ प्रकाश का दरख़्त 
उसके फल भी मुझे चखने नहीं दिये गये कभी 
तिजोरी में बंद रखी गयीं प्रकाश की किरणें 
बस्ती में बिखेरा गया अंधकार 
और तेरा बाप निकला मेरी पीढ़ियाँ बर्बाद करने 
लेकिन उसका क़द नहीं है इतना 
कि महासूर्य को काँख में छुपा सके ...
आ, मेरे पास आ, तू और मैं नये संसार की शुरुआत करें 
वह देख, उधर मेरी बस्ती में ऊपर की ओर बढ़ने लगा है सूर्य ... 



२) तटस्थ 


प्रिये 
तुम मेरे पास आयीं 
और मेरी स्वप्न भाषा बोलने लगी 


बस्ती पर अब सूर्य दाखिल हुआ 
गाफ़िल अब रहा नहीं कोई 
दूसरे के जीवन से खेलना शब्द- पहेली जितना आसान नहीं है 
और 
सपने को बेच देना मेरे स्वभाव में नहीं ।



३) भेद 


तुम डिग्रियां लेती रही 
विवाह को देर है इसलिए 
तब मैं रोजी रोटी के सवाल को हल करने 
अनुभव की प्रगल्भता के लिए 
जीने के संदर्भ जानने 
मनुष्य होने के धरातल पर 
मनुष्य के प्रश्न हल करने पर अड़ा रहा 
 तुम उड़ाती रही मेरी ग़रीबी का मखौल 
और मैं ढ़ूँढता रहा गरीबी मेटने के उपाय 
ऐसे में मेरे तुम्हारे बीच की दरार 
बढ़ती जाती है 
अक्षर से नाता जोड़ देने वाले अक्षरसूर्य ने 
जीवन खर्च किया जो अपना 
अंततः क्या मिला उसका फल..? 


४) समाज कार्य 


प्रिये 
सेवानिवृत्ति के बाद सुबह और सांझ 
कुत्ता शौचियाते फिरता  है तुम्हारा खाली पीली बाप 
कुत्ते के शौचकर्म को ही मानता है वह समाजकार्य 


बाप कह रहा था तुम्हारा 
'एक कुत्ते के महिने का खर्च छः हज़ार रूपये '
मैं मेरी तनख़्वाह का हिसाब लगाता हूँ 
कुत्ते के खर्च से फ़कत दो हज़ार रुपये ज़्यादा 
उसमें हम चार जीवों का होता है गुज़ारा 


तेरा बाप नौकरी में था तब 
तनख्वाह के अतिरिक्त खेंच लेता था हराम की कमाई 
पानठेले के पान से लेकर खानपान तक 
बाहर से ही चलता रहता था ये सब 
और अब कुत्ते को सुबह शाम शुचियाना 
यही है समाज कार्य 


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- शेषराव पिराजी धांडे
 ('आमचा आलेख कोराच' से साभार) 
 हिंदी अनुवाद  : राजेंद्र गायकवाड़

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