प्रशांत असनारे कि एक कविता





हर एक औरत

आंगन में

दरवाजे के सामने रंगोली बनाती है,

मोर के पंख रंग से भरती हैं

और दिन भर

घरपर

थुईथुई नाचती रहती है-

मोर की तरह.... 


रात को

देर से आता है आदमी 

गिरता धुवाधार बारिश की तरह  छत और उसके उपर...


तब बिखर जाती

आँगन में उसने बनायी हुई रांगोली

और बिखर जाते है-

मोर के पंखों मे भरे हुए

उसके सारे रंग!

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● मुळ कवी - प्रशांत असनारे

● अनुवाद - कबीर उषा लक्ष्मण बोबडे

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